मानसिक रोगो के उपचार के लिए यौगिक सिद्धांत

 

डा. श्याम सुन्दर पाल

योग विभाग, इंदिरा गाॅधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय, अमरकंटक (.प्र)

 

*Corresponding Author E-mail:  shyamsunder.yoga@gmail.com

 

सारांश

आज के आधुनिक युग में अनेक मानसिक तथा सामाजिक कारकों के कारण व्यक्ति मानसिक रोगों के शिकार हो रहे है। मानसिक रोगों के उपचार तथा बचाव के लिए प्रयास किए जा रहे है पर फिर भी मानसिक रोगियों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। इस इकाई में मानसिक रोगों के उपचार में यौगिक विधियों की उपयोगिता दर्शाने का प्रयास किया गया है। अंतः इस इकाई का उद्देश्य विभिन्न योगिक विधियों का मनोचिकित्सीय महत्व प्रस्तुत करना है।

 

ज्ञम्ल्ॅव्त्क्ैरू  संतुलन, सम्पूर्णता, मानसिक शुद्धिकरण, विस्तृत चेतना का सिद्धान्त।

 

 

 

मानसिक रोगो पर पहले दिए गए विवरण से यह स्पष्ट है कि लगभग सभी प्रकार के मानसिक रोगों का मूल कारण तनाव या प्रतिबल ;ैजतमेेद्ध है। सामान्यतः यह देखा गया है कि प्रतिबल मुख्य रूप से दो कारणों से उत्पन्न होता है-बाह्म वातावरण में उपस्थित कारक तथा व्यक्ति के भीतर व्यक्तिगत कारक। अतः प्रतिबल संबंधी रोगों के उपचार तथा बचाव के लिए दो मापदण्ड होना आवष्यक है-

() बाह्म वातावरण के कारकों को कम करने का मापदण्ड

() व्यक्ति के भीतर परिस्थिति से लड़ने की क्षमता तथा प्रवृत्ति का विकास।

 

योगिक उपचार का सीधा संबंध व्यक्ति को भीतर से मजबूत बनाना तथा उसमें परिस्थिति से लड़ने की ताकत पैदा करने से है। स्वास्थ्य के संबंध में योग का संबंध बचाव, उपचार तथा विकास तीनों से है। दूसरे षब्दों में, योग मानसिक रोगों को उत्पन्न होने से रोकता है, मानसिक रोगों के लक्षणों का निराकरण करता है तथा व्यक्ति में अच्छे गुणों का विकास की परिस्थिति से लड़ने की क्षमता विकसित करता है।

 

भारत में हजारों वर्षाे से योग का अभ्यास किया जाता रहा है। ये अलग बात है कि मानसिक रोगों के रोकथाम तथा उपचार में योग के महत्व को हाल में दुनिया के अन्य देशों जैसे-अमेरिका, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, जर्मनी आदि ने भी पहचाना है। मानसिक रोगों का यौगिक उपचार कुछ सिद्धान्तों या नियमों ;च्तपदबपचसमेद्ध पर आधारित है जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का परिचय नीचे दिया जा रहा है।

 

संतुलन का सिद्धान्त

योग में मान्यता है कि प्रत्येंक व्यक्ति हमेशा संतुलन की अवस्था में रहना चाहता है। जब कभी भी शारीरिक या मानसिक असंतुलन उत्पन्न होता है तो व्यक्ति एक बार फिर संतुलन स्थापित करने का प्रयास करता है। यही बात मानसिक रोग पर भी लागू होती है। एक मानसिक रोगी में अपनी सामान्यता को वापस प्राप्त करने की अचेतन इच्छा होती है। इसी आधार पर योग कुछ विधियोँ प्रदान करता है जिसके अभ्यास से मानसिक रोगी अपनी सामान्यता को वापस प्राप्त कर पाते है और एक स्वस्थ जीवन बिताते हे। योग के अनुसार प्रायः मानसिक रोगियों में प्राणिक तथा मानसिक असंतुलन होात है। उसे इड़ा नाड़ी अधिक प्रभावित होती है जिससे वह संवेगात्मक तथा भावनात्मक असंतुलन से पीड़ित होता है तथा नकारात्मक विचारो से कष्ट पाता है।

 

सम्पूर्णता का सिद्धान्त

योगिक साहित्य में सम्पूर्ण स्वास्थ्य ;ीवसपेजपब ीमंसजीद्ध का अर्थ बतलाते हुए स्वास्थ्य के तीन पत्रों की चर्चा की गई है-शारीरिक पक्ष या शरीर, मानसिक पक्ष या मन तथा अध्यात्मिक प़क्ष या आत्मा। योग के अनुसार स्वास्थ्य के ये तीनों पक्ष आपस में संबंधित तथा एक दूसरे पर निर्भर है। प्राचीन योग-विज्ञान के अनुसार स्वास्थ्य का अर्थ शारीरिक क्षमता, मानसिक क्षमता तथा आध्यात्मिक आनन्द। ऐसा माना गया है कि मानसिक रोग शरीर, मन तथा आत्मा के बीच असंतुलन का परिणाम है। अतः मानसिक रोग के उपचार में योग सिर्फ लक्षणों का उपचार नहीं करता बल्कि सम्पूर्ण व्यक्तित्व में परिवर्तन लाने का प्रयत्प करता है।

 

मानसिक शुद्धिकरण का सिद्धान्त   

मन को शरीर तथा आत्मा के बीच का एक सेतु माना गया है। शरीर तथा आत्मा की समस्याएँ मन में इकट्ठा होकर कई मानसिक रोगो को उत्पन्न करते है। अतः योग, मन के शुद्धिकरण को लक्ष्य मानता है। इसके लिए योग में कई विधियाँ है- जैसे प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि। खास प्रत्याहार की विधियाँ जैसे, योगनिद्रा, अजपाजप तथा अंतमौन आदि मन के नकारात्मक भावों एवं तनावों को दूर कर मन को सकारात्मक और शुद्ध बनाते है।

 

विस्तृत चेतना का सिद्धान्त

योग का मानना है कि अधिकांश मानसिक रोग चेतना के संकुचित होने के कारण उत्पन्न होते है।मैंयाअहम्का बोध ही प्रतिबल का मुख्य स्रोत है जो आसक्ति, अहंकार, राग तथा द्वेष की उत्पत्ति में मुख्य भूमिका अदा करता है। अतः चेतना के विस्तार के लिए आवश्यक मापदण्ड का होना अनविार्य है जिससेमैंका अनुभवहमके अनुभव में परिवर्तित हो सके। व्यक्ति द्वारा समष्टि का चिन्तन अपनापन के दायरे को बढ़ाना विस्तृत चेतना के उदाहरण है। जब यह विस्तृत चेतना विकसित होती है तो आसक्ति धीरे-धीरे अनासक्ति में परिणत हो जाती है और व्यक्ति राग तथा द्वेष के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। इस अनासक्त भाव के विकास से केवल मानसिक समस्याओं का निदान होता है बल्कि यह इनसे बचने में भी अह्म भूमिका निभाता है।

 

इस इकाई में हमने देखा कि किस प्रकार विभिन्न यौगिक अभ्यास मानसिक रोग के रोकथाम तथा उपचार में अहम् भूमिका निभा सकते है। यहाँ हमने मानसिक रोग की यौगिक चिकित्सा के विभिन्न सिद्धान्तों या नियमों की चर्चा की। इसके बाद हमने मानसिक रोगों में विभिन्न यौगिक अभ्यासों के निरोधात्मक, चिकित्सात्मक तथा विकासात्मक महत्व की चर्चा की। मानसिक रोग के चिकित्सात्मक विधियों के रूप में योगासन, प्राणायाम, योगनिद्रा, अजपा जप, अंतमौन, त्राटक, कर्मयोग तथा भक्ति योग पर विस्तार से चर्चा की गई है।

 

संदर्भ ग्रंथ सूची

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3.         स्वामी सत्यानन्द सरस्वती, तंत्र क्रिया और योगनिद्रा।

4.         स्वामी सत्यानन्द सरस्वती, ध्यान तंत्र के आलोक में।

5.         स्वामी सत्यानन्द सरस्वती, योगनिद्रा।

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9.         जैन गरिमा: स्वास्थ और शारीरिक शिक्षण, युनिवर्सिटी बुक हाउस प्रा.लि., जयपुर

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12.       अग्रवाल बी.बी.: आधुनिक भारतीय शिक्षा और समस्याएँ, विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा 2000

 

 

 

Received on 29.05.2017       Modified on 03.06.2017

Accepted on 25.06.2017      © A&V Publication all right reserved

Int. J. Ad. Social Sciences. 2017; 5(2):86-88.